Jolly LLB 3: कोर्टरूम ड्रामा की भीड़ के बीच मजबूत ओपनिंग और सधी हुई कहानी

क्यों काम कर गई Jolly LLB 3 जब कोर्टरूम ड्रामा भर चुका था?
पिछले पांच साल में हिंदी सिनेमा और ओटीटी पर कानूनी थ्रिलर और कोर्टरूम ड्रामा की बाढ़ सी आ गई। ऐसे माहौल में जब नई रिलीज की घोषणा हुई, कई लोगों ने कहा—और कितना कोर्ट? लेकिन Jolly LLB 3 ने रिलीज के साथ ही उस संशय को पीछे छोड़ दिया। 19 सितंबर 2025 को आई इस फ्रैंचाइज़ी की तीसरी फिल्म ने शुरुआत से साफ कर दिया कि यह शोर से नहीं, कहानी और परफॉर्मेंस से जीतती है।
सब्हाष कपूर के निर्देशन में बनी फिल्म इस बार दो ‘जॉली’—अक्षय कुमार (एडवोकेट जगदीश्वर ‘जॉली’ मिश्रा) और अरशद वारसी (एडवोकेट जगदीश ‘जॉली’ त्यागी)—को आमने-सामने लाती है। केंद्र में है राजस्थान की पृष्ठभूमि में किसानों की जमीन अधिग्रहण के विवाद और उसके बाद हुई आत्महत्या का केस। यह प्लॉट उत्तर प्रदेश में 2011 के भूमि अधिग्रहण विरोध प्रदर्शनों की गूंज महसूस कराता है, मगर फिल्म काल्पनिक किरदारों और घटनाओं के साथ अपना रास्ता बनाती है। देश के सबसे अमीर उद्योगपति हरीभाई खेतान (गजराज राव) ‘बीकानेर टू बॉस्टन’ नाम की मेगा टाउनशिप खड़ी करना चाहते हैं—किसानों की भूमि अधिग्रहित करके।
फ्रैंचाइज़ी की पहचान रहे सौरभ शुक्ला इस बार भी जज सुंदर लाल त्रिपाठी के रूप में कोर्टरूम की धुरी बने हुए हैं। उनकी मौजूदगी संवादों को वजन देती है और मुकदमे की नब्ज को हल्के-फुल्के व्यंग्य से भी संभालती है। हुमा कुरैशी (पुष्पा पांडे मिश्रा), अमृता राव (संध्या त्यागी) और सीमा बिस्वास सहित सपोर्टिंग कास्ट कहानी को जमीन पर बनाए रखती है—जहां किसानों की बेचैनी, फाइलों की धीमी चाल और कॉर्पोरेट दबाव की परतें साथ-साथ दिखती हैं।
सीरीज की पहली फिल्म (2013) ने एक छोटे वकील की जद्दोजहद से सिस्टम पर चोट की थी, दूसरी (2017) ने स्टार पावर के साथ सामाजिक मुद्दे का वजन उठाया। तीसरा भाग इन दोनों की अच्छाइयों को जोड़ता है—जमीनी यथार्थ, चुभता व्यंग्य, और कोर्टरूम में तर्क की साफ-सुथरी लड़ाई। यहां गाने, कैमियो और ग्लैमर साइड में हैं; फोकस बहस, साक्ष्य और इंसाफ पर है।
ज्यादा कोर्टरूम कंटेंट के बीच यह फिल्म इसलिए अलग दिखती है क्योंकि इसका संघर्ष सिर्फ कच्चे भावनात्मक दृश्य नहीं रचता, बल्कि भूमि कानून, अधिग्रहण की प्रक्रियाओं, और ‘जनहित बनाम निजी लाभ’ जैसे सवालों को कहानी में पिरोता है। तर्कों की कट-एंड-थ्रस्ट शैली—जहां दोनों जॉली एक-दूसरे को आक्रामक तरीके से किनारे लगाते हैं—थ्रिल पैदा करती है, और जज की समय-समय पर की गई टिप्पणियां माहौल को संतुलित करती हैं।
आलोचनात्मक रिसेप्शन और बॉक्स ऑफिस ट्रैक
ओपनिंग रिसेप्शन उम्मीद से बेहतर रहा। आलोचकों ने औसतन 3.5 स्टार दिए और खासकर सौरभ शुक्ला की कोर्टरूम मौजूदगी की तारीफ की। हिंदुस्तान टाइम्स के रिव्यू ने इशारा किया कि फ्रैंचाइज़ी की ताकत कहानी और परफॉर्मेंस हैं—न कि गीत-संगीत या सेलिब्रिटी कैमियो। यह टिप्पणी इस बात को रेखांकित करती है कि फिल्म ने अपने डीएनए से समझौता नहीं किया।
कमाई के मोर्चे पर भी शुरुआत ठोस है। दूसरे दिन तक इसका बॉक्स ऑफिस कलेक्शन ₹32 करोड़ तक पहुंचा—महामारी के बाद अक्षय कुमार के लिए यह छठी सबसे बड़ी ओपनिंग बनी। हाल के वर्षों में फ्लॉप्स की कड़ी के बाद 2025 में अक्षय के लिए यह रिकवरी सिग्नल जैसा दिखता है। अरशद वारसी के लिए भी यह वापसी जैसा क्षण है—जहां उनकी टाइमिंग और सूक्ष्म हास्य कोर्टरूम की नोकझोंक को जीवंत रखते हैं।
कहानी की संरचना भी दर्शकों को पकड़कर रखती है। पहले एक्ट में किसानों की परेशानियां और अधिग्रहण की प्रक्रिया स्थापित होती है, दूसरे एक्ट में दोनों वकीलों की रणनीतियां और सिस्टम की खामियां सामने आती हैं, और क्लाइमेक्स तक आते-आते मामला सिर्फ एक केस नहीं, नीति और नैतिकता के टकराव में बदल जाता है। इस दौरान फिल्म आसान समाधान नहीं देती—यह दिखाती है कि कानून की किताब और जमीन पर न्याय, दोनों के बीच दूरी कैसे बनती है।
ट्रेड हलकों में यह राय उभरी है कि जब कंटेंट नया एंगल और सटीक कास्टिंग पेश करे, तो कोर्टरूम ड्रामा थकान नहीं, बल्कि रफ्तार पकड़ता है। यहां वही होता दिखा: गजराज राव एक परतदार विरोधी के रूप में उभरते हैं—जो सिर्फ ‘विलेन’ नहीं, बल्कि सिस्टम के उस हिस्से का चेहरा हैं जहां विकास की भाषा और धोखे की रेखा धुंधली हो जाती है।
जैसे-जैसे वर्ड-ऑफ-माउथ फैलेगा, फिल्म की टिकाऊ कमाई की परीक्षा होगी—वीकडे होल्ड, टिकट दरों में उतार-चढ़ाव और उत्तर-पश्चिम के बाजारों की प्रतिक्रिया जैसे कारक असर डालेंगे। लेकिन शुरुआती ट्रेंड साफ करते हैं कि दर्शक अभी भी कोर्टरूम में नई बात सुनना चाहते हैं—बशर्ते बहस दमदार हो, किरदार स्पष्ट हों और नतीजा किसी ‘देउस एक्स मशीना’ पर न टिका हो।
आखिर में, फ्रैंचाइज़ी के लिए यह किस्त एक बार फिर उसी सूत्र पर लौटती है जिसने इसे लोकप्रिय बनाया था: आम लोगों की मुश्किलें, सिस्टम की पेचीदगियां और अदालत के भीतर चलती हाजिरजवाबी। अगर आप पिछले कुछ समय से कानूनी ड्रामा से ऊब चुके थे, तो यहां तर्क की धार और मानवीय संवेदना का संतुलन एक ताज़ा अनुभव देता है—बिना चिल्ल-पों के, सीधे मुद्दे पर।