जब राजा जगत सिंह को गंभीर बीमारी ने घेर लेती है, तब बाबा पयहारी की सलाह से अयोध्या के भगवान रघुनाथ की मूर्ति लाई गई और कुल्लू में स्थापित की गई – यही कहानी है जिसका जन्म कुल्लू दशहरा 2024ढालपुर मैदान, कुल्लू ने किया। यह उत्सव 13 अक्टूबर को शुरू हुआ और सात दिनों तक चलने वाला अंतरराष्ट्रीय समारोह हमेशा देश के बाकी हिस्सों के दशहरा समाप्त होते ही शुरू होता है।
इतिहास की परतें: 1661‑1662 से चलती परम्परा
तथ्य यह है कि ढालपुर मैदान में पहली बार दशहरा 1662 (कुछ स्रोत 1661) में मनाया गया। उस समय कुल्लू के राजा जगत सिंह ने सभी देवताओं को आमंत्रित कर रघुनाथ जी को मुख्य देवता घोषित किया। इस ऐतिहासिक ‘देव मिलन’ ने दशहरा को शूरवीर‑रामलीला से अलग, एक समन्वय‑उत्सव में बदल दिया।
समय‑सपने के साथ, इस परम्परा हर साल बदली लेकिन मूल भावना – रोग‑मुक्ति, सामुदायिक एकता और बहु‑देवता का संगम – बरकरार रहा।
इस साल का विस्तार: सात‑दिन का रंगीन मेला
उत्सव का पहला दिन दशहरा की देवी और मनाली की हिंदिबा कुल्लू में प्रवेश करती हैं, देवताओं को दर्शन देती हैं और राजघराने के सभी सदस्य असीस लेते हैं। प्रत्येक दिन विशेष रीतियों के साथ जारी रहता है:
- दूसरे दिन रघुनाथ जी की रथयात्रा, जहाँ भक्त घंटी‑बिगुल की ध्वनि के बीच शरद‑रात्रि के आकाश को देख सकते हैं।
- तीसरे दिन स्थानीय नर्तकियों का नटी‑नृत्य, जो पर्वत की हवा में झिलमिलाते परिधान में सजे होते हैं।
- चौथे दिन 1000 से अधिक छोटी‑बड़ी देवी‑देवता की पालकी, जो ध्वनि‑विचित्र वाद्य यंत्रों के साथ शहर के मुख्य चौक से गुजरती है।
- पाँचवें दिन पर्वत‑जनजातियों द्वारा अपने ग्रामीण देवता की झंकार‑भरी जुलूस।
- छठे दिन विस्तृत सांस्कृतिक शो, जहाँ कश्मीरी नृत्य, हिमाचली लोकगान और शिल्प प्रदर्शन होते हैं।
- सातवें दिन यानी दशमी, जहाँ पूरे शहर में रथ‑आगमन का शिखर दृश्य देता है, और सभी देवता एक साथ मिलकर अन्न‑भोजन का दावत साझा करते हैं।
स्थानीय महिला कलाकार ने कहा, “इस वर्ष हम अपने परिधान में हिमाचली कढ़ाई और झींक का नया रूप पेश कर रहे हैं, जिससे परेड और भी रंगीन बन रही है।”
स्थानीय संगठनों और सरकार की भूमिका
उत्सव की तैयारी कुल्लू नगर निकाय और हिमाचल प्रदेश पर्यटन विभाग द्वारा मिलकर की गई है। उन्होंने पिछले महीने से ही सुरक्षा, स्वच्छता, और यात्रियों के रहने‑सहने के इंतजाम किए हैं।
पर्यटन विभाग के अधिकारी श्री अमरनाथ सिंह ने बताया, “इस साल हम अंतरराष्ट्रीय फोकल पॉइंट बनाते हुए विदेशी पत्रकारों को आमंत्रित कर रहे हैं, ताकि कुल्ली दशहरा को वैश्विक मंच पर लाया जा सके।”
राष्ट्रव्यापी और अंतरराष्ट्रीय असर
कुल्लू दशहरा अब सिर्फ एक स्थानीय त्यौहार नहीं रहा; इसे ‘इंटरनेशनल फेस्टिवल ऑफ दिव्य सांस्कृतिक एकता’ के रूप में भी पहचान मिली है। पिछले वर्ष 20 देशों के 150 से अधिक प्रतिनिधियों ने इस जश्न में भाग लिया था। अर्थशास्त्री डॉ. रीना शर्मा का अनुमान है कि इस वर्ष स्थानीय व्यवसायियों की आय में लगभग 30 % की बढ़ोतरी होगी।
दिलचस्प बात यह है कि इस समारोह में रावण दहन नहीं होता, जिससे यह भारत के अन्य दशहरा से स्पष्ट रूप से अलग दिखता है – यह विविधता, सहिष्णुता और साम्प्रदायिक एकता का प्रतीक बन गया है।
आगे का रास्ता: परम्परा का संवर्धन और टिकाऊ विकास
भविष्य में कुल्लू दशहरा को और अधिक पर्यावरण‑अनुकूल बनाने की योजना है। शहर ने प्लास्टिक‑मुक्त नीतियों को लागू करने का संकल्प लिया है और कई संगठित समूह ‘ग्रीन फेस्टिवल’ पहल के तहत बायोडिग्रेडेबल सजावट का उपयोग कर रहे हैं।
स्थानीय युवा वर्ग भी डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म पर इस त्यौहार को लाइव स्ट्रीम करके विश्व‑व्यापी दर्शकों तक पहुंचा रहा है। इस डिजिटल कदम से न केवल परंपरा सुरक्षित होगी, बल्कि युवा उद्यमियों को नए व्यापार अवसर भी मिलेंगे।
मुख्य तथ्य
- इवेंट: कुल्लू दशहरा 2024
- तारीख: 13 Oct 2024 – 19 Oct 2024 (7 दिन)
- स्थान: ढालपुर मैदान, कुल्लू, हिमाचल प्रदेश
- आरंभिक वर्ष: 1661 / 1662
- मुख्य आकर्षण: रघुनाथ रथयात्रा, 1000+ देवी‑देवता का जुलूस

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न
कुल्लू दशहरा में रामलीला क्यों नहीं होती?
यह उत्सव 17वीं सदी में राजा जगत सिंह के रोग‑मुक्ति के बाद रघुनाथ जी को मुख्य देवता मानने से उत्पन्न हुआ था। इसलिए इसका फोकस शत्रु‑दहन नहीं, बल्कि विभिन्न देवताओं के मिलन पर रहता है।
उत्सव का आर्थिक प्रभाव कितने प्रतिशत तक पहुंचता है?
डॉ. रीना शर्मा के अनुसार, स्थानीय होटल, रेस्टोरेंट और हस्तशिल्प उद्योगों की आय इस वर्ष लगभग 30 % बढ़ने की उम्मीद है, जो कुल्लू की अर्थव्यवस्था को महत्वपूर्ण रूप से सुदृढ़ करता है।
क्या विदेशी पर्यटक इस समारोह में भाग ले सकते हैं?
हिमाचल प्रदेश पर्यटन विभाग ने अब इंटरनेशनल पासपोर्टधारियों के लिए विशेष सुविधाएं उपलब्ध कराई हैं; कई विदेशी पत्रकार और अनुसंधान संस्थान पहले ही पंजीकरण कर चुके हैं।
उत्सव में पर्यावरणीय पहल क्या हैं?
‘ग्रीन फेस्टिवल’ पहल के तहत प्लास्टिक‑मुक्त टेबलवेयर, बायोडिग्रेडेबल सजावट और कचरा पुनर्चक्रण स्टेशन लगाए गए हैं, जिससे जल‑वायु पदचिह्न को न्यूनतम किया जा रहा है।
कुल्लू दशहरा का मुख्य संदेश क्या है?
परस्पर सम्मान, सांस्कृतिक विविधता और सामुदायिक एकता – यह त्यौहार हमें यह सिखाता है कि विभिन्न देवता और लोग एक साथ मिलकर उत्सव बना सकते हैं, बिना किसी हिंसा के।
Rajbir Singh
सितंबर 30, 2025 AT 20:14कुल्लू दशहरा का इतिहास वास्तव में अद्भुत है, परन्तु इस उत्सव की आधुनिक प्रस्तुति में कुछ अतिरेक देख रहा हूँ। यह कहा जाता है कि रघुनाथ को मुख्य देवता बनाया गया, परन्तु वास्तविक आचार‑व्यवहार में परम्परा की झलक कम है। स्थानीय लोग इस महोत्सव को आर्थिक लाभ के लिये उपयोग करते हैं, यह समझ में आता है। फिर भी, हमें मूल उद्देश्य-रोग‑मुक्ति और सामुदायिक एकता-को याद रखना चाहिए।
ONE AGRI
अक्तूबर 1, 2025 AT 01:47देखिए, हमारे देश की आत्मा में ही शुद्धता और बलिदान का भाव बसा है, और कुल्लू दशहरा इस भावना का एक जीता‑जागता उदाहरण है। यह त्योहार केवल पर्व नहीं, बल्कि राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक है। जब हम विदेशी यात्रियों को यहाँ देखते हैं, तो उनका स्वागत गर्व और सम्मान से करना चाहिए, क्योंकि यह भारत की महानता को विश्व के सामने लाता है। इस प्रकार के कार्यक्रम हमारे युवाओं में राष्ट्रभक्ति की भावना को भी प्रज्ज्वलित करते हैं, जिससे भविष्य में देश के विकास में उनका योगदान निःसंदेह रहेगा।
Kiran Singh
अक्तूबर 1, 2025 AT 07:21कुल्लू दशहरा का जलसा देख कर मन खुश हो गया! 🎉 बहुत बढ़िया काम है स्थानीय कलाकारों का, उनके परिधान और नृत्य सच में दिल छू लेता है। इस उत्सव में भाग ले कर हमें अपनी संस्कृति पर गर्व महसूस होता है। चलो, सब मिलकर इस ऊर्जा को और भी आगे बढ़ाते रहें! 😊
Balaji Srinivasan
अक्तूबर 1, 2025 AT 12:54बहुत ठोस जानकारी है इस पोस्ट में, खासकर आर्थिक प्रभाव की बातें। कुल्ली में पर्यटन की बढ़त और स्थानीय कारीगरों की भागीदारी सराहनीय है। आशा करता हूँ कि आगे भी ऐसी ही संगठित योजनाएँ बनती रहें।
Hariprasath P
अक्तूबर 1, 2025 AT 18:27ये कुल्लू का दशहरा तो बिलकुल ही बेस्ट है, सच में एंटी‑डिटेल्ड नॉलेज फील्ड में उछाल देता है। लोग इधर‑उधर हाइप कर रहे हैं, क्यूँकि इवेंट का टाइमिंग वाला एण्ड लुज है, बहुत ही कौम्प्लेक्स लेकिन रिलैक्स्ड फील है।
Vibhor Jain
अक्तूबर 2, 2025 AT 00:01वाओ, कुल्लू का यह घोटाला... भगवान! कैसे लोग इतने सादे होते हैं कि रावण दहन नहीं करते। असली बात तो ये है कि इतने सारे देवता एक साथ आते हैं और फिर भी सब ठीक-ठाक रहता है।
Prakash Dwivedi
अक्तूबर 2, 2025 AT 05:34दिल से कहूँ तो इस समारोह की ऊर्जा में एक गहरा असर है; जैसे कोई अनकही कहानी हवा में बुन रही हो। हर रंगीन झंकार, हर आवाज़ एक नई उमंग उत्पन्न करती है, और यह सब मिलकर एक अद्भुत अनुभव बनाते हैं।
Govind Kumar
अक्तूबर 2, 2025 AT 11:07उल्लेखित पहल वास्तव में प्रशंसनीय है, तथा यह दर्शाता है कि स्थानीय प्रशासन और समुदाय के बीच सहयोग कितना प्रभावी रूप से कार्य कर रहा है। इस प्रकार की पहलें हमें आशावादी बनाती हैं और भविष्य में भी इसी प्रकार के प्रयासों की अपेक्षा रखती हैं।
Shubham Abhang
अक्तूबर 2, 2025 AT 16:41वाह!!! कुल्लू का ये दशहरा रोचक है!!!
Trupti Jain
अक्तूबर 2, 2025 AT 22:14वास्तव में, इस प्रकार के सांस्कृतिक समारोह न केवल पर्यटकों को आकर्षित करते हैं, बल्कि स्थानीय जनजीवन को भी उज्ज्वल बनाते हैं। रंग‑रूप, ध्वनि, और परम्परा का यह संगम अत्यंत मनोहारी है।
Priya Patil
अक्तूबर 3, 2025 AT 03:47सच्ची बात है, कुल्लू दशहरा जैसे इवेंट से हमारे युवा शक्ति में नई ऊर्जा आती है। इसे देख कर सभी को प्रेरणा मिलती है और हम सबको इसे विस्तार से समर्थन देना चाहिए।
Maneesh Rajput Thakur
अक्तूबर 3, 2025 AT 09:21ध्यान दें: इन सभी उत्सवों के पीछे एक छिपी हुई एजेंडा हो सकती है, जहाँ सरकारी संस्थाएँ अपना राजनैतिक प्रभाव बढ़ाने की कोशिश करती हैं। इस प्रकार के बड़े आयोजनों में अक्सर एक छिपा हुआ आर्थिक लक्ष्य भी निहित रहता है।
vikash kumar
अक्तूबर 3, 2025 AT 14:54कुल्लू दशहरा को लेकर यह दृष्टिकोण बहुत सूक्ष्म और शिष्ट है, और इससे स्पष्ट होता है कि इस प्रकार की सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों को किस प्रकार से विशिष्ट ऊँचाइयों तक पहुँचा जा सकता है।
Anurag Narayan Rai
अक्तूबर 3, 2025 AT 20:27मैं अक्सर सोचता हूँ कि इस तरह के बड़े महोत्सव कैसे आध्यात्मिक और सामाजिक दोनों स्तरों पर प्रभाव डालते हैं। स्थानीय कलाकारों की भागीदारी, पर्यटकों की संख्या, और आर्थिक लाभ-इन सभी पहलुओं को मिलाकर देखना चाहिए। साथ ही, यह देखना भी ज़रूरी है कि इस उत्सव में पर्यावरणीय मानदंड कितने प्रतिबद्धता से लागू हो रहे हैं। क्या ये पहलें दीर्घकालिक स्थिरता को सुनिश्चित करती हैं, या केवल अल्पकालिक प्रचार‑प्रसार का साधन हैं? इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिये हमें डेटा‑ड्रिवन विश्लेषण की आवश्यकता होगी।
Sandhya Mohan
अक्तूबर 4, 2025 AT 02:01कुल्लू दशहरा का इतिहास हमें समय के गहरे ताने-बाने को समझने का अवसर देता है।
पहले जब राजा जगत सिंह ने रघुनाथ को मुख्य देवता माना, तब यह एक शुद्ध आध्यात्मिक जागरण था।
समय के साथ, इस उत्सव ने सामाजिक एकता और सांस्कृतिक विविधता को अपनाया।
आज के युवा इसे डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म पर प्रसारित कर वैश्विक मंच पर ले जा रहे हैं।
परन्तु, मूल उद्देश्य-रोग‑मुक्ति और सामुदायिक संगति-अभी भी जीवित है।
हर दिन के अनुष्ठान में इस भावना की प्रतिध्वनि सुनाई देती है।
रथयात्रा, जुलूस, और कलाकारों का नृत्य इस चेतना को प्रकट करता है।
पर्यावरणीय पहल जैसे प्लास्टिक‑मुक्त नीति इसे भविष्य के लिये सुरक्षित बनाती है।
स्थानीय कारीगरों की आय में 30% की वृद्धि, आर्थिक स्वर को भी उन्नत करती है।
अंतरराष्ट्रीय पत्रकारों की भागीदारी से यह विश्व में भारत की विविधता को दर्शाता है।
रावण दहन न होने से यह दशहरा शांति और सहिष्णुता का प्रतीक बन गया है।
इस प्रकार, कुल्लू दशहरा केवल एक त्यौहार नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता का मंच है।
आइए, हम सब मिलकर इसे और भी सुंदर बनाएं।
समाप्ति में, यह संदेश देना चाहूँगा कि विविधता में ही शक्ति है।